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रह-ए-गुमाँ से अजब कारवाँ गुज़रते हैं | शाही शायरी
rah-e-guman se ajab karwan guzarte hain

ग़ज़ल

रह-ए-गुमाँ से अजब कारवाँ गुज़रते हैं

अकबर हमीदी

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रह-ए-गुमाँ से अजब कारवाँ गुज़रते हैं
मिरी ज़मीं से कई आसमाँ गुज़रते हैं

जो रात होती है कैसी महकती हैं गलियाँ
जो दिन निकलता है क्या क्या बुताँ गुज़रते हैं

कभी जो वक़्त ज़माने को देता है गर्दिश
मिरे मकाँ से भी कुछ ला-मकाँ गुज़रते हैं

कभी जो देखते हैं मुस्कुरा के आप इधर
दिल-ओ-निगाह में क्या क्या गुमाँ गुज़रते हैं