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राज़-ए-दरून-ए-आस्तीं कश्मकश-ए-बयाँ में था | शाही शायरी
raaz-e-darun-e-astin kashmakash-e-bayan mein tha

ग़ज़ल

राज़-ए-दरून-ए-आस्तीं कश्मकश-ए-बयाँ में था

अहमद शहरयार

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राज़-ए-दरून-ए-आस्तीं कश्मकश-ए-बयाँ में था
आग अभी नफ़स में थी शोला अभी ज़बाँ में था

वो जो कहीं था वो भी मैं और जो नहीं था वो भी मैं
आप ही था ज़मीन पर आप ही आसमाँ में था

लम्स-ए-सदा-ए-साज़ ने ज़ख़्म निहाल कर दिए
ये तो वही हुनर है जो दस्त-ए-तबीब-ए-जाँ में था

ख़्वाब-ए-ज़ियाँ हैं उम्र का ख़्वाब हैं हासिल-ए-हयात
इस का भी था यक़ीं मुझे वो भी मिरे गुमाँ में था

ख़ंजर ओ दशना ओ सिनाँ ये तो बहाने हैं मियाँ
आप न शर्मसार हों ज़ख़्म सिरिश्त-ए-जाँ में था

हद्द-ए-गुमाँ से एक शख़्स दूर कहीं चला गया
मैं भी वहीं चला गया मैं भी गुज़िश्तगाँ में था