रात रौशन न हुई काहकशाँ होते हुए
मैं भी लौ दे न सका शोला-ए-जाँ होते हुए
कर लिया जज़्ब मिरा दूर किनारों ने वजूद
मौज-ए-दरिया न बना जू-ए-रवाँ होते हुए
क्यूँ गिराँ-बार है एहसास पे तंहाई की सुब्ह
पास मेरे तिरे होने का गुमाँ होते हुए
ये भी मुमकिन है कि मैं जंग में फ़ातेह ठहरूँ
तेरे क़ब्ज़े में मेरे तीर ओ कमाँ होते हुए
जब कि बे-रंग रहे बाग़ बहारों में 'शहाब'
तेरे जंगल में खिले फूल ख़िज़ाँ होते हुए
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ग़ज़ल
रात रौशन न हुई काहकशाँ होते हुए
मुस्तफ़ा शहाब