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रात की ख़ामोशी का माथा ठंका था | शाही शायरी
raat ki KHamoshi ka matha Thanka tha

ग़ज़ल

रात की ख़ामोशी का माथा ठंका था

ज़िशान इलाही

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रात की ख़ामोशी का माथा ठंका था
जाने किस के हाथ का कंगन खनका था

झील ने अपने सीने पर यूँ टाँक लिया
जैसे मैं आवारा चाँद गगन का था

उस का लॉन बहारों से आबाद रहा
सूख गया जो पेड़ मिरे आँगन का था

तेरे क़ुर्ब की ख़ुश-बू से मग़्लूब हुआ
दिल में जो आसेब अकेले-पन का था

दिल से दर-ओ-दीवार की ख़्वाहिश क्यूँ न गई
सहरा का माहौल तो मेरे मन का था

राम उसे कर लेता सच्चा इश्क़ मिरा
लेकिन वो 'ज़ीशान' पुजारी धन का था