रात की ख़ामोशी का माथा ठंका था
जाने किस के हाथ का कंगन खनका था
झील ने अपने सीने पर यूँ टाँक लिया
जैसे मैं आवारा चाँद गगन का था
उस का लॉन बहारों से आबाद रहा
सूख गया जो पेड़ मिरे आँगन का था
तेरे क़ुर्ब की ख़ुश-बू से मग़्लूब हुआ
दिल में जो आसेब अकेले-पन का था
दिल से दर-ओ-दीवार की ख़्वाहिश क्यूँ न गई
सहरा का माहौल तो मेरे मन का था
राम उसे कर लेता सच्चा इश्क़ मिरा
लेकिन वो 'ज़ीशान' पुजारी धन का था
ग़ज़ल
रात की ख़ामोशी का माथा ठंका था
ज़िशान इलाही