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रात दमकती है रह रह कर मद्धम सी | शाही शायरी
raat damakti hai rah rah kar maddham si

ग़ज़ल

रात दमकती है रह रह कर मद्धम सी

ज़ेब ग़ौरी

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रात दमकती है रह रह कर मद्धम सी
खुले हुए सहरा के हाथ पे नीलम सी

अपनी जगह साहिल सा ठहरा ग़म तेरा
दिल के दरिया में इक हलचल पैहम सी

लम्बी रात गुज़र जाए ताबीरों में
उस का पैकर एक कहानी मुबहम सी

अपनी लगावट को वो छुपाना जानता है
आग इतनी है और ठंडक है शबनम सी

मेरे पास से उठ कर वो उस का जाना
सारी कैफ़िय्यत है गुज़रते मौसम सी

शायद अब भी कोई शरर बाक़ी हो 'ज़ेब'
दिल की राख से आँच आती है कम कम सी