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राह भोला हूँ मगर ये मिरी ख़ामी तो नहीं | शाही शायरी
rah bhola hun magar ye meri KHami to nahin

ग़ज़ल

राह भोला हूँ मगर ये मिरी ख़ामी तो नहीं

अफ़ज़ल ख़ान

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राह भोला हूँ मगर ये मिरी ख़ामी तो नहीं
मैं कहीं और से आया हूँ मक़ामी तो नहीं

ऊँचा लहजा है फ़क़त ज़ोर-ए-दलाएल के लिए
ऐ मिरी जाँ ये मिरी तल्ख़-कलामी तो नहीं

उन दरख़्तों को दुआ दो कि जो रस्ते में न थे
जल्दी आने का सबब तेज़-ख़िरामी तो नहीं

तेरी मसनद पे कोई और नहीं आ सकता
ये मिरा दिल है कोई ख़ाली असामी तो नहीं

मैं हमा-वक़्त मोहब्बत में पड़ा रहता था
फिर किसी दोस्त से पूछा ये ग़ुलामी तो नहीं

बरतरी इतनी भी अपनी न जता ऐ मिरे इश्क़
तू 'नदीम'-ओ-'ज़की' ओ 'काशिफ़'-ओ-'कामी' तो नहीं