क़ुर्स-ए-ख़ुर को देख कर तस्कीं रख ऐ मेहमान-ए-सुब्ह
ता-दहान-ए-शाम पहुँचाता है राज़िक़ नान-ए-सुब्ह
मअ'नी-ए-रौशन जो हों तो सौ से बेहतर एक शेर
मतला-ए-ख़ुर्शीद काफ़ी है पए-दीवान-ए-सुब्ह
सैर-चश्मी दीद के भूखों की देखो कहती है
मह पनीर-ए-शाम है ख़ुर्शीद-ए-ताबाँ नान-ए-सुब्ह
सदक़े उस पर्वरदिगार-ए-पाक के जिस ने किया
बहर-ए-तिफ़्ल-ए-ग़ुंचा पैदा शीर-ए-बे-पिस्तान-ए-सुब्ह
सुब्ह-दम ग़ाएब हुए 'अंजुम' तो साबित हो गया
ख़ंदा-ए-बेहूदा पर तोड़े गए दंदान-ए-सुब्ह
वस्ल की शब आँख दिखला कर ये अंजुम कहते हैं
लो क़यामत आई मशरिक़ से उठा तूफ़ान-ए-सुब्ह
देखे वो गुलशन जो दिन-दो-दिन रहे याँ मिस्ल-ए-गुल
हम तो शबनम-साँ 'नसीम' एक दम के हैं मेहमान-ए-सुब्ह
ग़ज़ल
क़ुर्स-ए-ख़ुर को देख कर तस्कीं रख ऐ मेहमान-ए-सुब्ह
पंडित दया शंकर नसीम लखनवी