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क़रीब आ के भी इक शख़्स हो सका न मिरा | शाही शायरी
qarib aa ke bhi ek shaKHs ho saka na mera

ग़ज़ल

क़रीब आ के भी इक शख़्स हो सका न मिरा

असलम कोलसरी

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क़रीब आ के भी इक शख़्स हो सका न मिरा
यही है मेरी हक़ीक़त यही फ़साना मिरा

ये और बात कि मुझ को न मिल सका अब तक
तिरे जहाँ में कहीं है सही ठिकाना मिरा

चराग़ कहने लगा फिर हवा के झोंके से
ये एहतिमाम तो ऐ दोस्त है तिरा न मिरा

सो अब तू बज़्म-ए-तमन्ना में ताइराना चहक!
तिरे दिमाग़ पे हल्का सा बोझ था न मिरा?

अभी तो गूँज रहे हैं बदन में शो'ले से
अभी तो ख़ाम है अंदाज़-ए-आशिक़ाना मिरा

कहाँ मजाल कि मर्ज़ी से फड़फड़ा भी सुकूँ
क़फ़स-मिसाल है 'असलम' ये आशियाना मिरा