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क़ल्ब-ए-वारफ़्ता मोहब्बत में कहीं ऐसा न हो | शाही शायरी
qalb-e-warafta mohabbat mein kahin aisa na ho

ग़ज़ल

क़ल्ब-ए-वारफ़्ता मोहब्बत में कहीं ऐसा न हो

नसीम शाहजहाँपुरी

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क़ल्ब-ए-वारफ़्ता मोहब्बत में कहीं ऐसा न हो
जिस को तू अपना समझता है वही बेगाना हो

हर सितम पर मुस्कुराना मेरी फ़ितरत है मगर
देखिए इस ज़ब्त का अंजाम क्या हो क्या न हो

मैं ने माना आप ने सब कुछ भुला डाला मगर
ग़ैर-मुमकिन है कभी मेरा ख़याल आता न हो

हुस्न को ये ग़म कि जल्वे हो रहे हैं बे-नक़ाब
इश्क़ को ये फ़िक्र नामूस-ए-नज़र रुस्वा न हो

शौक़ से तू भूल जा ऐ भूलने वाले मगर
इस तग़ाफ़ुल में कोई पहलू तवज्जोह का न हो

गिर गया उन की निगाहों से दिल-ए-ख़ाना-ख़राब
मेरी नज़रों से भी गिर जाए कहीं ऐसा न हो

बहर-ए-तकमील-ए-नज़ारा ये भी लाज़िम है 'नसीम'
मेरे उन के दरमियाँ हाइल कोई पर्दा न हो