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क़फ़स से छूटने की कब हवस है | शाही शायरी
qafas se chhuTne ki kab hawas hai

ग़ज़ल

क़फ़स से छूटने की कब हवस है

ताबाँ अब्दुल हई

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क़फ़स से छूटने की कब हवस है
तसव्वुर भी चमन का हम को बस है

बजाए रख़्ना-ए-दीवार-ए-गुलशन
हमें सय्याद अब चाक-ए-क़फ़स है

फ़ुग़ाँ करता ही रहता है ये दिन रात
इलाही दिल है मेरा या जरस है

कटेंगे उम्र के दिन कब के बे-यार
मुझे इक इक घड़ी सौ सौ बरस है

हमारी दाद के तईं कौन पहुँचे
न कुइ मूनिस न कुइ फ़रियाद-रस है

गली में यार की हो जाइए ख़ाक
मिरे दिल में ये मुद्दत से हवस है

सफ़र दुनिया से करना क्या है 'ताबाँ'
अदम हस्ती से राह-ए-यक-नफ़स है