क़दम क़दम पर तुम्हारी यूँ तो इनायतें भी बहुत हुइ हैं
मुझे मिरी बे-नियाज़ियों पर नदामतें भी बहुत हुइ हैं
ये मत समझना कि आँसुओं ही से भीग जाती हैं उस की पलकें
कि बारहा चश्म-ए-नम से उस की करामातें भी बहुत हुइ हैं
अजब तमाशा है ज़ुल्म सह कर भी सारे मज़लूम मुतमइन हैं
उन्हीं की जानिब से क़ातिलों की ज़मानतें भी बहुत हुइ हैं
मोहब्बतों में ख़मोशियाँ ही जवाब होती हैं मो'तरिज़ का
अगरचे कुछ बे-इरादा मुझ से वज़ाहतें भी बहुत हुइ हैं
हुइ है इज़हार-ए-आरज़ू में ख़ता-ए-ताख़ीर इस लिए भी
रह-ए-तमन्ना उजालने में तवालतें भी बहुत हुइ हैं
'शहाब' साहिल से बाँध रक्खो अभी पुरानी वो नाव अपनी
कि जस पे तूफ़ानी नद्दियों में मसाफ़तें भी बहुत हुइ हैं

ग़ज़ल
क़दम क़दम पर तुम्हारी यूँ तो इनायतें भी बहुत हुइ हैं
मुस्तफ़ा शहाब