क़द से कुछ मावरा चराग़ जले
पलकें उठें वो या चराग़ जले
तीरगी ख़त्म हो नहीं रही दोस्त
दूसरा तीसरा चराग़ जले
जल उठा हूँ मैं है अँधेरा कहाँ
कह रहा था बड़ा चराग़ जले
यूँ बुझा है कि दिल ये चाहता है
और इक मर्तबा चराग़ जले
घुप अँधेरे में आँखें रौशन हैं
अब यहाँ और क्या चराग़ जले
सब ने बैअ'त अँधेरों से कर ली
और मैं कहता रहा चराग़ जले
वस्ल हो तो चराग़ाँ भी कर लें
हिज्र की रात क्या चराग़ जले
मेरा और उस का वाक़िआ' यूँ है
जब हुआ सामना चराग़ जले
आइना रख के सामने देखा
आइने में सिवा चराग़ जले
ज़ौ पुराने दियों की कम नहीं पर
इक ज़रा सा नया चराग़ जले
बात लेकिन मिरी सुनी न गई
मैं ने चाहा भी था चराग़ जले
मुझ को जलता मकाँ दिखाई दिया
मैं ने की थी दुआ चराग़ जले
ऐसे जलता है आज दिल मेरा
जिस तरह 'मीर' का चराग़ जले
रुख़ हवा ने बदल लिया अपना
फ़ैसला हो गया चराग़ जले
मुझ को जलने में आर कब है मगर
यूँ जला जिस तरह चराग़ जले
अपने हिस्से का जल-बुझा 'ज़ीशान'
अब कोई दूसरा चराग़ जले
ग़ज़ल
क़द से कुछ मावरा चराग़ जले
ज़िशान इलाही