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क़ाबिज़ रहा है दिल पे जो सुल्तान की तरह | शाही शायरी
qabiz raha hai dil pe jo sultan ki tarah

ग़ज़ल

क़ाबिज़ रहा है दिल पे जो सुल्तान की तरह

सरफ़राज़ शाहिद

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क़ाबिज़ रहा है दिल पे जो सुल्तान की तरह
आख़िर निकल गया शह-ए-ईरान की तरह

ज़ाहिर में सर्द ओ ज़र्द है काग़ान की तरह
लेकिन मिज़ाज उस का है मुल्तान की तरह

राज़-ओ-नियाज़ में भी अकड़-फ़ूँ नहीं गई
वो ख़त भी लिख रहा है तो चालान की तरह

लुक़्मा हलाल का जो मिला अहल-कार को
उस ने चबा के थूक दिया पान की तरह

ज़िक्र उस परी-जमाल का जब और जहाँ छिड़ा
फ़ौरन रक़ीब आ गया शैतान की तरह

इक लम्हा उस की दीद हुई बस की भीड़ में
और फिर वो खो गया मिरे औसान की तरह

मैं मुब्तला-ए-क़र्ज़ रहा चार साल तक
वो सिर्फ़ चार दिन रहा मेहमान की तरह

हर बात के जवाब में फ़ौरन नहीं नहीं
निकला ज़बान-ए-यार से गर्दान की तरह

'शाहिद' से कह रहे हो कि रोज़े रखा करे
हर माह जिस का गुज़रा है रमज़ान की तरह