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फिर वही बे-दिली फिर वही माज़रत | शाही शायरी
phir wahi be-dili phir wahi mazarat

ग़ज़ल

फिर वही बे-दिली फिर वही माज़रत

लियाक़त अली आसिम

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फिर वही बे-दिली फिर वही माज़रत
बस बहुत हो चुका ज़िंदगी माज़रत

ख़ुद-कलामी से भी रूठ जाती है तू
अब न बोलूँगा ऐ ख़ामुशी माज़रत

धूप ढल भी चुकी साए उठ भी चुके
अब मिरे यार किस बात की माज़रत

दाद बे-दाद में दिल नहीं लग रहा
दोस्तो शुक्रिया शाएरी माज़रत

बे-ख़ुदी में ख़ुदाई का दावा किया
ऐ ख़ुदा दर-गुज़र ऐ ख़ुदी माज़रत

तुझ से गुज़री हुई ज़िंदगी माँग ली
रब्ब-ए-इमरोज़-ओ-फ़र्दा-ओ-दी माज़रत

इक नज़र उस ने देखा है 'आसिम' चलो
दूर ही से सही हो चुकी माज़रत