फिर वही बे-दिली फिर वही माज़रत
बस बहुत हो चुका ज़िंदगी माज़रत
ख़ुद-कलामी से भी रूठ जाती है तू
अब न बोलूँगा ऐ ख़ामुशी माज़रत
धूप ढल भी चुकी साए उठ भी चुके
अब मिरे यार किस बात की माज़रत
दाद बे-दाद में दिल नहीं लग रहा
दोस्तो शुक्रिया शाएरी माज़रत
बे-ख़ुदी में ख़ुदाई का दावा किया
ऐ ख़ुदा दर-गुज़र ऐ ख़ुदी माज़रत
तुझ से गुज़री हुई ज़िंदगी माँग ली
रब्ब-ए-इमरोज़-ओ-फ़र्दा-ओ-दी माज़रत
इक नज़र उस ने देखा है 'आसिम' चलो
दूर ही से सही हो चुकी माज़रत

ग़ज़ल
फिर वही बे-दिली फिर वही माज़रत
लियाक़त अली आसिम