फिर उसी बुत से मोहब्बत चुप रहो
और फिर उस पर शिकायत चुप रहो
चश्म-ए-पुर-नम थम के अब मेरी सुनो
इश्क़ में ये कैसी उजलत चुप रहो
कोई हसरत गर बिखर जाए भी तो
जान कर यारब की हिकमत चुप रहो
तब्सिरे हों हिज्र पर या वस्ल पर
अब कहाँ हम को है फ़ुर्सत चुप रहो
ख़ुत्बा-ए-आख़िर में सब समझा दिया
कर दी क़ाएम हम ने उल्फ़त चुप रहो
सब बयाँ तुम कर चुके अब राह लो
सब जो चुप हैं तुम भी 'उल्फ़त' चुप रहो
ग़ज़ल
फिर उसी बुत से मोहब्बत चुप रहो
शादाब उल्फ़त