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फिर उलझते हैं वो गेसू की तरह | शाही शायरी
phir ulajhte hain wo gesu ki tarah

ग़ज़ल

फिर उलझते हैं वो गेसू की तरह

सख़ी लख़नवी

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फिर उलझते हैं वो गेसू की तरह
फिर कजी पर हैं वो अबरू की तरह

शहर-ए-वहशत में कहाँ घर कैसा
दश्त में रहते हैं आहू की तरह

हुस्न और इश्क़ को आओ तौलें
दोनों आँखों से तराज़ू की तरह

मुझ को आँखों में जगह दो चंदे
फिर गिरा दीजियो आँसू की तरह

न कहूँगा कि सँवारो ज़ुल्फ़ें
फिर उलझ जाएँगे गेसू की तरह

ऐ 'सख़ी' फिरती है किस ख़ाल की शक्ल
सामने आँख के बिच्छू की तरह