फिर तिरे रेशमी लब मुझ को मनाने आए
प्यास जन्मों की फिर इक बार बुझाने आए
याद से उस की कहो आज सताने आए
ख़्वाब आँखों से, सकूँ दिल से चुराने आए
आज फिर दर्द के बाज़ार सजे हैं यारो
अश्क फिर आँखों में दूकान लगाने आए
तू ने एहसास की दौलत से नवाज़ा था मगर
ज़ीस्त के फ़िक्र-ओ-अलम होश उड़ाने आए
मुंतज़िर आज तलक भी हैं कि इस रात कभी
तू किसी और से मिलने के बहाने आए
कम-सिनी मुझ में यही सोच के ज़िंदा है 'सहर'
मैं जो रूठूँ तो कभी तू भी मनाने आए
ग़ज़ल
फिर तिरे रेशमी लब मुझ को मनाने आए
नीना सहर