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फिर बपा शहर में अफ़रातफ़री कर जाए | शाही शायरी
phir bapa shahar mein afraatafri kar jae

ग़ज़ल

फिर बपा शहर में अफ़रातफ़री कर जाए

आफ़ताब इक़बाल शमीम

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फिर बपा शहर में अफ़रातफ़री कर जाए
कोई ये सूखी हुई डार हरी कर जाए

जब भी इक़रार की कुछ रौशनियाँ जम्अ' करूँ
मेरी तरदीद मिरी बे-बसरी कर जाए

मादन-ए-शब से निकाले ज़र-ए-ख़ुश्बू आ कर
आए ये मो'जिज़ा बाद-ए-सहरी कर जाए

कसरतें आएँ नज़र ज़ात की यकताई में
ये तमाशा कभी आशुफ़्ता-सरी कर जाए

लम्हा मुंसिफ़ भी है मुजरिम भी है मजबूरी का
फ़ाएदा शक का मुझे दे के बरी कर जाए

उस का मेआ'र ही क्या रोज़ बदल जाता है
छोड़िए! वो जो अगर ना-क़दरी कर जाए