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फटा हुआ जो गरेबाँ दिखाई देता है | शाही शायरी
phaTa hua jo gareban dikhai deta hai

ग़ज़ल

फटा हुआ जो गरेबाँ दिखाई देता है

आबिद वदूद

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फटा हुआ जो गरेबाँ दिखाई देता है
किसी का दर्द नुमायाँ दिखाई देता है

निकलना चाहता हूँ जिस्म के हिसार से मैं
कि अपना तन मुझे ज़िंदाँ दिखाई देता है

सरा-ए-दहर में ठहरा हुआ मुसाफ़िर हूँ
अजीब बे-सर-ओ-सामाँ दिखाई देता है

तिरे लबों के तबस्सुम को किस से दूँ तश्बीह
कि ग़ुंचा भी तो परेशाँ दिखाई देता है

हर एक शख़्स किसी ख़ौफ़ की गिरफ़्त में है
तमाम शहर हिरासाँ दिखाई देता है

जो हो सके तो कभी उस की रूह में झाँको
क़बा पहन के जो उर्यां दिखाई देता है

मआश ऐसी कि सुनसान हैं गली बाज़ार
भटकता ऐसा कि इंसाँ दिखाई देता है