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फैला न यूँ ख़ुलूस की चादर मिरे लिए | शाही शायरी
phaila na yun KHulus ki chadar mere liye

ग़ज़ल

फैला न यूँ ख़ुलूस की चादर मिरे लिए

वली मदनी

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फैला न यूँ ख़ुलूस की चादर मिरे लिए
कल तक था तेरे हाथ में पत्थर मिरे लिए

पलकों पे कुछ हसीन से मोती सजा गया
फिर सूनी सूनी शाम का मंज़र मिरे लिए

दीवार-ओ-दर से उस के टपकती है तिश्नगी
इक दश्त-ए-बे-कराँ है मिरा घर मिरे लिए

ख़ुशबू जो प्यार की मुझे देता था अब वही
रखता है दस्त-ए-नाज़ में ख़ंजर मिरे लिए

ये शब बड़ी तवील है जाऊँ कहाँ 'वली'
अब बंद हो चुके हैं सभी दर मिरे लिए