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पेश-ए-मंज़र जो तमाशे थे पस-ए-मंज़र भी थे | शाही शायरी
pesh-e-manzar jo tamashe the pas-e-manzar bhi the

ग़ज़ल

पेश-ए-मंज़र जो तमाशे थे पस-ए-मंज़र भी थे

पी पी श्रीवास्तव रिंद

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पेश-ए-मंज़र जो तमाशे थे पस-ए-मंज़र भी थे
हम ही थे माल-ए-ग़नीमत हम ही ग़ारत-गर भी थे

आस्तीनों में छुपा कर साँप भी लाए थे लोग
शहर की इस भीड़ में कुछ लोग बाज़ीगर भी थे

बर्फ़-मंज़र धूल के बादल हवा के क़हक़हे
जो कभी दहलीज़ के बाहर थे वो अंदर भी थे

आख़िर-ए-शब दर्द की टूटी हुई बैसाखियाँ
आड़े-तिरछे ज़ाविए मौसम के चेहरे पर भी थे

रात हम ने जुगनुओं की सब दुकानें बेच दीं
सुब्ह को नीलाम करने के लिए कुछ घर भी थे

कुछ बिला-उनवान रिश्ते अजनबी सरगोशियाँ
रतजगों के जश्न में ज़ख़्मों के सौदागर भी थे

शब-परस्तों के नगर में बुत-परस्ती ही न थी
वहशतें थीं संग-ए-मरमर भी था कारीगर भी थे

इस ख़राबे में नए मौसम की साज़िश थी तो 'रिंद'
लज़्ज़त-ए-एहसास के लम्हों के जलते पर भी थे