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पत्थर नज़र थी वाइ'ज़-ए-ख़ाना-ख़राब की | शाही शायरी
patthar nazar thi waiz-e-KHana-KHarab ki

ग़ज़ल

पत्थर नज़र थी वाइ'ज़-ए-ख़ाना-ख़राब की

वसीम ख़ैराबादी

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पत्थर नज़र थी वाइ'ज़-ए-ख़ाना-ख़राब की
टूटी है क्या तड़ाक़ से बोतल शराब की

कुछ आसमाँ ने ख़ाक उड़ाई पस-ए-फ़ना
कुछ तुम ने ऐ बुतो मिरी मिट्टी ख़राब की

पी कर न ज़ब्त वाइ'ज़-ए-कम-ज़र्फ़ से हुआ
क्या अपने साथ मय की भी मिट्टी ख़राब की

काँटा हूँ बाग़ में तो मैं बिजली हूँ चर्ख़ पर
ये रंग-ए-लाग़री है वो शक्ल इज़्तिराब की

बू-ए-शराब आती है हर इक नफ़स के साथ
पहलू में दिल है या कोई बोतल शराब की

लैल-ओ-नहार भी हैं हसीनों के वास्ते
दिन आफ़्ताब का है तो शब माहताब की

मेरे गुनह जो चश्म-ए-करम में समा गए
आँखें झुका के रह गई मीज़ाँ हिसाब की

आई जो रूह पैकर-ए-ख़ाकी में ऐ 'वसीम'
घबरा के बोल उठी मिरी मिट्टी ख़राब की