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पस-ए-दीवार ज़िंदाँ ज़िंदगी मौजूद रहती है | शाही शायरी
pas-e-diwar zindan zindagi maujud rahti hai

ग़ज़ल

पस-ए-दीवार ज़िंदाँ ज़िंदगी मौजूद रहती है

इस्लाम उज़्मा

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पस-ए-दीवार ज़िंदाँ ज़िंदगी मौजूद रहती है
अँधेरी रात में भी रौशनी मौजूद रहती है

सर-ए-दरबार-ओ-मक़्तल एक सा मौसम अना का है
गराँ सर में हमेशा सर-कशी मौजूद रहती है

रवाँ रखते हैं हम को दश्त-ए-दरिया धूप दरवाज़े
सराबों से सफ़र में तिश्नगी मौजूद रहती है

नज़र से जोड़ रखता है ये दिल ऐसे भी नज़्ज़ारे
कि बा'द-अज़-मर्ग भी हैरानगी मौजूद रहती है

बहुत आसान राहें भी बहुत आसाँ नहीं होतीं
सभी रस्तों में थोड़ी गुमरही मौजूद रहती है

मिरी सोचों में यूँ रच बस गए हैं शबनमी मौसम
तवातुर से तह-ए-मिज़्गाँ नमी मौजूद रहती है

तलातुम में सदा रहती हैं किरनें हुस्न-ए-ताबाँ की
नसीब-ए-दुश्मनाँ कुछ बरहमी मौजूद रहती है

निकल पाता नहीं मैं कूचा-ए-बेनाम से 'अज़्मी'
कि असबाब-ए-सफ़र में कुछ कमी मौजूद रहती है