पर्दा उलट के उस ने जो चेहरा दिखा दिया
रंग-ए-रुख़-ए-बहार-ए-गुलिस्ताँ उड़ा दिया
वहशत में क़ैद-ए-दैर-ओ-हरम दिल से उठ गई
हक़्क़ा कि मुझ को इश्क़ ने रस्ता बता दिया
फिर झाँक-ताक आँखों ने मेरी शुरूअ' की
फिर ग़म का मेरे नालों ने लग्गा लगा दिया
अंगड़ाई दोनों हाथ उठा कर जो उस ने ली
पर लग गए परों ने परी को उड़ा दिया
सीखी है उस जवान ने पीर-ए-फ़लक की चाल
हिर-फिर के मुझ को ख़ाक में आख़िर मिला दिया
वो सैर को जो आए तो सदक़े में उन को 'बर्क़'
हर एक गुल ने ताइर-ए-निकहत उड़ा दिया
ग़ज़ल
पर्दा उलट के उस ने जो चेहरा दिखा दिया
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़