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पर्दा-ए-ज़ेहन से साया सा गुज़र जाता है | शाही शायरी
parda-e-zehn se saya sa guzar jata hai

ग़ज़ल

पर्दा-ए-ज़ेहन से साया सा गुज़र जाता है

मुमताज़ मीरज़ा

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पर्दा-ए-ज़ेहन से साया सा गुज़र जाता है
जैसे पल भर को मिरा दिल भी ठहर जाता है

तेरी यादों के दिए जब भी जलाता है ये दिल
हुस्न कुछ और शब-ए-ग़म का निखर जाता है

हसरतें दिल की मुजस्सम नहीं होने पातीं
ख़्वाब बनने नहीं पाता कि बिखर जाता है

रात भीगे तो इक अंजान सा बेनाम सा दर्द
चाँदनी बन के फ़ज़ाओं में बिखर जाता है

रात काटे नहीं कटती है किसी सूरत से
दिन तो दुनिया के बखेड़ों में गुज़र जाता है

उस को भी कहते हैं 'मुमताज़' वफ़ा का नग़्मा
दिल-ए-बेताब में घुट घुट के जो मर जाता है