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पराई आग में जलने की आरज़ू है वही | शाही शायरी
parai aag mein jalne ki aarzu hai wahi

ग़ज़ल

पराई आग में जलने की आरज़ू है वही

खलील तनवीर

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पराई आग में जलने की आरज़ू है वही
बदल गया है मगर वहशतों की ख़ू है वही

वो शहर छोड़ के मुद्दत हुई चला भी गया
हद-ए-उफ़ुक़ पे मगर चाँद रू-ब-रू है वही

ज़माना लाख सितारों को छू के आ जाए
अभी दिलों को मगर हाजत-ए-रफ़ू है वही

क़रीब था तो सभी उस से बे-ख़बर थे मगर
चला गया है तो मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू है वही