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परा बाँधे सफ़-ए-मिज़्गाँ खड़ी है | शाही शायरी
para bandhe saf-e-mizhgan khaDi hai

ग़ज़ल

परा बाँधे सफ़-ए-मिज़्गाँ खड़ी है

रियाज़ ख़ैराबादी

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परा बाँधे सफ़-ए-मिज़्गाँ खड़ी है
निगाह-ए-शौक़ क्या मारी पड़ी है

मज़े लूटो कलीम अब बन पड़ी है
बड़ी ऊँची जगह क़िस्मत लड़ी है

गुलों की ख़ुशनुमा बध्धी पड़ी है
तिरा क़द क्या है फूलों की छड़ी है

निगाह-ए-शौक़ भी नट-खट पड़ी है
किसी से तूर पर जा कर लड़ी है

कड़ी है चोट ये बे-शक कड़ी है
अदू है और फूलों की छड़ी है

अदू के वास्ते दुनिया का है ऐश
मुसीबत मेरे हिस्से में पड़ी है

हवा से तेज़ आते हैं तिरे तीर
कमाँ की तरह चुटकी भी कड़ी है

मज़े में रंग में तेज़ी में साक़ी
मय-ए-तसनीम क्या फीकी पड़ी है

करामत है सर-ए-नासेह की ये भी
कि अच्छे हाथ की अच्छी पड़ी है

ये किस ने फूल डाले हैं लहद पर
जुदा हर पंखुड़ी से पंखुड़ी है

लब-ए-जानाँ ने दी तस्कीं दम-ए-नज़्अ'
हमारी जान में जाँ अब पड़ी है

कहाँ बिजली में ये बेताबियाँ थीं
दिल-ए-मुज़्तर की परछाईं पड़ी है

न दुश्मन के चुभा ख़ार उस गली में
हमारे वास्ते सूली खड़ी है

जो लो करवट तो मैं समझूँ शब-ए-हिज्र
ये चोटी किस लिए पीछे पड़ी है

तिरे क़द ने उसे सीधा बनाया
क़यामत है कि सकते में खड़ी है

क़ज़ा का भी पड़ा है मुझ को रोना
बराबर मेरे वो बिस्मिल पड़ी है

ये क्या अंधेर है सुब्ह-ए-शब-ए-वस्ल
न सुर्मा है न मिस्सी की धड़ी है

पटक कर जाम-ए-मय हम कब रहे पाक
कि उड़ कर छींट दामन पर पड़ी है

डराते हैं कि उस से डरते रहना
बड़ी कलजिब्भी मिसी की धड़ी है

हुआ भारी मैं ऐसा नख़्ल-ए-गुल पर
मिरे साए से डाली फट पड़ी है

कफ़न का गोशा-ए-दामन तो उलटो
ये हसरत मुँह लपेटे क्यूँ पड़ी है

न मूसी हैं न है बर्क़-ए-सर-ए-तूर
नए तुम हो नई हम पर पड़ी है

लगा देता कोई मिट्टी ठिकाने
'रियाज़' इक आरज़ू मुर्दा पड़ी है