पलट के जानिब-अहल-ओ-अयाल देखता हूँ
कभी जब अपने लहू में उबाल देखता हूँ
हनूज़ कुछ भी बदलता नज़र नहीं आता
हुजूम देखता हूँ इश्तिआल देखता हूँ
शिकस्त-ओ-रेख़्त से मुझ को गुज़ारता है वही
इसी के चेहरे पे गर्द-ए-मलाल देखता हूँ
सब एक धुँद लिए फिर रहे हैं आँखों में
किसी के चेहरे पे माज़ी न हाल देखता हूँ
लगा हुआ हूँ उसी रंग को उभारने में
अभी ग़ज़ल में जिसे ख़ाल ख़ाल देखता हूँ
तमाम सूरत-ए-हालात इंक़िलाबी है
फ़लक शिकस्ता ज़मीं पाएमाल देखता हूँ
मुझे समेट के रखता है कितनी देर 'तलब'
किसी के हुस्न-ए-नज़र का कमाल देखता हूँ
ग़ज़ल
पलट के जानिब-अहल-ओ-अयाल देखता हूँ
ख़ुर्शीद तलब