पलक झपकते में कटते हैं रोज़ ओ शब मह ओ साल
जो फ़ासले थे मन ओ तू के दरमियाँ न रहे
वफ़ा रिफ़ाक़त-ए-यक-उम्र कुछ नहीं लेकिन
ये चाहता हूँ कि रोऊँ बहुत गले मिल के
मसाफ़-ए-जीस्त में वो रन पड़ा है आज के दिन
न मैं तुम्हारी तमन्ना हूँ और न तुम मेरे
रफ़ीक़-ओ-यार कहाँ ऐ हिजाब-ए-तन्हाई
बस अपने चेहरे को तकता हूँ आईना रख के
हज़ार शोर-ए-तमाशा हो आँख बाज़ न हो
वो ख़्वाब देख के बैठा हूँ उम्र भर के लिए
ग़ज़ल
पलक झपकते में कटते हैं रोज़ ओ शब मह ओ साल
महमूद अयाज़