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पला हूँ नफ़रत की आँधियों में मगर मोहब्बत से मुँह न मोड़ूँ | शाही शायरी
pala hun nafrat ki aandhiyon mein magar mohabbat se munh na moDun

ग़ज़ल

पला हूँ नफ़रत की आँधियों में मगर मोहब्बत से मुँह न मोड़ूँ

ख़ालिद इक़बाल यासिर

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पला हूँ नफ़रत की आँधियों में मगर मोहब्बत से मुँह न मोड़ूँ
हमेशा बाज़ू कुशादा रख्खूँ कभी मुरव्वत से मुँह न मोड़ूँ

ज़माने भर की तमाम तल्ख़ी हो चाहे मेरे लहू में शामिल
पुरानी नाकामियों से डर के नई शरारत से मुँह न मोड़ूँ

जबीं पे नागाह पड़ने वाली शिकन अगर मुस्तक़िल हुई है
तो ज़ेर-ए-लब मुस्कुराते रहने की अच्छी आदत से मुँह न मोड़ूँ

बुरा भला वास्ता बहर-तौर उस से कुछ देर तो रहा है
कहीं सर-ए-राह सामना हो तो इतनी शिद्दत से मुँह न मोड़ूँ

जो दर पे आ ही गई है 'यासिर' तो मुझ पे लाज़िम है ख़ैर-मक़्दम
हज़ार बे-दिल सही पर इस खुरदुरी हक़ीक़त से मुँह न मोड़ूँ