पहुँचा दिया उमीद को तूफ़ान-ए-यास तक
बुझने न दी फ़ुरात ने बच्चों की प्यास तक
पहले तो दस्तरस थी शजर के लिबास तक
लेकिन ख़िज़ाँ ने नोच लिया सब का मास तक
छिड़का गया है ज़हर दरख़्तों पे इस क़दर
तल्ख़ी में ढल गई है फलों की मिठास तक
इस बार भी लिबास को तरसेंगी चुन्नियाँ
ये रौनक़ें हैं चेहरों पे खिलती कपास तक
काग़ज़ पे उस की शक्ल बनाता हूँ रात भर
'नासिक' नहीं हूँ जिस का मैं चेहरा-शनास तक
ग़ज़ल
पहुँचा दिया उमीद को तूफ़ान-ए-यास तक
अतहर नासिक