EN اردو
पहुँच गया था वो कुछ इतना रौशनी के क़रीब | शाही शायरी
pahunch gaya tha wo kuchh itna raushni ke qarib

ग़ज़ल

पहुँच गया था वो कुछ इतना रौशनी के क़रीब

शारिब मौरान्वी

;

पहुँच गया था वो कुछ इतना रौशनी के क़रीब
बुझा चराग़ तो पल्टा न तीरगी के क़रीब

सुलगती रेत पे भी उस का हौसला देखो
हुई न प्यास कभी ख़ेमा-ज़न नमी के क़रीब

बदन के दश्त में जब दफ़्न हो गया एहसास
वफ़ा फटकती भला कैसे आदमी के क़रीब

हमारी प्यास के सूरज ने डाल कर किरनें
किया है गहरे समुंदर को तिश्नगी के क़रीब

जो ज़ख़्म-ए-दिल को रफ़ू कर रहा था अश्कों से
हमारे ब'अद न देखा गया किसी के क़रीब

बशर ने चाँद सितारों को छू लिया लेकिन
ये आदमी न कभी आया आदमी के क़रीब

हमारे बच्चों के लब प्यास से हैं झुलसे हुए
हमारी लाश भी रखना न तुम नमी के क़रीब

ये किस के नाम से बढ़ती हैं धड़कनें दिल की
ये कौन है मिरे एहसास-ए-ज़िंदगी के क़रीब