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पहली सी चाहतों के वो मंज़र नहीं रहे | शाही शायरी
pahli si chahaton ke wo manzar nahin rahe

ग़ज़ल

पहली सी चाहतों के वो मंज़र नहीं रहे

निगार अज़ीम

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पहली सी चाहतों के वो मंज़र नहीं रहे
आशिक़ तो बे-शुमार हैं दिलबर नहीं रहे

इस अहद-ए-नौ में और तो सब कुछ मिला मगर
शर्म-ओ-हया के क़ीमती ज़ेवर नहीं रहे

ये फूल ये चराग़ ये तारों का क़ाफ़िला
सब कुछ है तेरे ख़्वाब के पैकर नहीं रह

दिल के नगर में क़ैद हैं चाहत की बुलबुलें
वो मौसम-ए-बहार के मंज़र नहीं रहे

लाई थी जितनी सीपियाँ सब बाँझ हो गईं
हैरान हूँ किसी में भी गौहर नहीं रहे

मैं ने 'निगार' साँसें भी कर दीं थी जिन के नाम
वो एक पल को भी मिरे हो कर नहीं रहे