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पहचान कम हुई न शनासाई कम हुई | शाही शायरी
pahchan kam hui na shanasai kam hui

ग़ज़ल

पहचान कम हुई न शनासाई कम हुई

राही कुरैशी

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पहचान कम हुई न शनासाई कम हुई
बाक़ी है ज़ख़्म ज़ख़्म की गहराई कम हुई

सुलगा हुआ है ज़ीस्त का सहरा उफ़ुक़ उफ़ुक़
चेहरों की दिलकशी गई ज़ेबाई कम हुई

दूरी का दश्त जिस के लिए साज़गार था
आँगन में क़ुर्ब के वो शनासाई कम हुई

अब शहर शहर आम है गोयाई का सुकूत
जब से लब-ए-सुकूत की गोयाई कम हुई

कुछ हो न हो ख़मोशी-ए-आईना से मगर
परछाइयों की मारका-आराई कम हुई

हर रंग ज़िंदगी है तह-ए-गर्द-ओ-रोज़गार
तस्वीर की वो रौनक़-ओ-रानाई कम हुई

इक अजनबी दयार में गुज़रे हैं दिन मगर
ये कम नहीं ख़ुलूस की रुस्वाई कम हुई

'राही' रफ़ाक़तों का ये अंजाम देख कर
साए के साथ अपनी शनासाई कम हुई