पड़ा न फ़र्क़ कोई पैरहन बदल के भी
लहू लहू ही रहा जम के भी पिघल के भी
बदन ने छोड़ दिया रूह ने रिहा न किया
मैं क़ैद ही में रहा क़ैद से निकल के भी
तहों का शोर भी अब सतह पर सुनाई दे
वो जोश में है तो फिर जिस्म ओ जाँ से छलके भी
नई रुतों में भी 'साबिर' उदासियाँ न गईं
ख़मीदा-सर है हर इक शाख़ फूल फल के भी
ग़ज़ल
पड़ा न फ़र्क़ कोई पैरहन बदल के भी
साबिर ज़फ़र