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पाया कोई शजर न कोई आसरा लगा | शाही शायरी
paya koi shajar na koi aasra laga

ग़ज़ल

पाया कोई शजर न कोई आसरा लगा

मुमताज़ राशिद

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पाया कोई शजर न कोई आसरा लगा
वो धूप थी कि अपना ही साया ख़ुदा लगा

घबरा के बाम-ओ-दर के सुलगते सुकूत से
झाँका ही था गली में कि संग-ए-सदा लगा

झाड़ी जो आग चेहरों की रंगत बदल गई
उस के दुखों का ज़िक्र सभी को बुरा लगा

देखा उसे तो अक्स-ए-तमन्ना चमक उठे
इस शहर-ए-संग में वो मुझे आइना लगा

सहरा को देर से थी किसी अब्र की तलाश
पाया मुझे तो वो मिरे सीने से आ लगा

कितना बदल गया है वो ज़ुल्फ़ें तराश कर
देखा जो दूर से तो कोई दूसरा लगा

छूते ही उस को गुंचा-ए-एहसास खिल उठे
'राशिद' थके बदन को वो मौज-ए-सबा लगा