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पास रहना भी और परे रहना | शाही शायरी
pas rahna bhi aur pare rahna

ग़ज़ल

पास रहना भी और परे रहना

जमीलुद्दीन क़ादरी

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पास रहना भी और परे रहना
हाए उन का डरे डरे रहना

ज़िंदगी नाम ख़ुद है हलचल का
हाथ पर हाथ क्यूँ धरे रहना

जो ग़ज़ल को समेट लेती है
उस अदा पर मरे मरे रहना

ये भी ज़िंदा-दिली का मसरफ़ था
साथ शाहों के मस्ख़रे रहना

बात क़द-आवरी की चलती है
ऐ 'जमील' आप कुछ परे रहना