पानी शजर पे फूल बना देखता रहा
और दश्त में बबूल बना देखता रहा
अय्याम के ग़ुबार से निकला तो देर तक
मैं रास्तों को धूल बना देखता रहा
तू बाज़ुओं में भर के गुलाबों को सो रही
मैं भी ख़िज़ाँ का फूल बना देखता रहा
कोंपल से एक लब से फ़रामोश हो के मैं
किस गुफ़्तुगू में तूल बना देखता रहा
बादा-कशों के ख़ूँ से छलकता था मय-कदा
ख़मियाज़ा-ए-मलूल बना देखता रहा
पिछले खंडर से अगले खंडर तक था इंतिज़ार
मैं आत्मा की भूल बना देखता रहा
नाम-ओ-नुमूद हफ़्त-जिहत सौंप कर मुझे
सूरज धनक में धूल बना देखता रहा
था सब्ज़ा-ए-कशीदा दरख़्तों के दरमियाँ
ना-क़ाबिल-ए-क़ुबूल बना देखता रहा
तज्सीम-ए-नौ-ब-नौ का करिश्मा था और ही
मैं अपना सा उसूल बना देखता रहा
लौह-ओ-क़लम की ख़ैर-सेगाली के वास्ते
शीराज़ा-ए-नुज़ूल बना देखता रहा
बनते ही मिट गया था ख़बर ही न हो सकी
मैं नक़्श को फ़ुज़ूल बना देखता रहा
चुटकी से बढ़ के था न हजम फिर भी मैं 'नवेद'
आमेज़े में हुलूल बना देखता रहा
ग़ज़ल
पानी शजर पे फूल बना देखता रहा
अफ़ज़ाल नवेद