पागल हवा के दोश पे जिंस-ए-गिराँ न रख
इस शहर-ए-बे-लिहाज़ में अपनी दुकाँ न रख
उस का दिया हुआ है जिस्म उस के सुपुर्द कर
रखने की इस हवस में तू दोनों जहाँ न रख
इस का ज़वाल देख के वो सल्तनत न छोड़
इस ज़िंदगी में लम्हा-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ न रख
वो फ़स्ल पक चुकी थी अब उस का भी क्या क़ुसूर
तुझ से कहा था जेब में चिंगारियाँ न रख
वो जिस्म है तो उस को फ़क़त जिस्म ही समझ
पर्दा किसी फ़रेब का फिर दरमियाँ न रख
आएगी हर तरफ़ से हवा दस्तकें लिए
ऊँचा मकाँ बना के बहुत खिड़कियाँ न रख
वो जिस्म खुल रहा है गिरह-दर-गिरह 'नज़र'
ये तीर चूक जाएगा ढीली कमाँ न रख
ग़ज़ल
पागल हवा के दोश पे जिंस-ए-गिराँ न रख
प्रेम कुमार नज़र