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पागल हवा के दोश पे जिंस-ए-गिराँ न रख | शाही शायरी
pagal hawa ke dosh pe jins-e-giran na rakh

ग़ज़ल

पागल हवा के दोश पे जिंस-ए-गिराँ न रख

प्रेम कुमार नज़र

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पागल हवा के दोश पे जिंस-ए-गिराँ न रख
इस शहर-ए-बे-लिहाज़ में अपनी दुकाँ न रख

उस का दिया हुआ है जिस्म उस के सुपुर्द कर
रखने की इस हवस में तू दोनों जहाँ न रख

इस का ज़वाल देख के वो सल्तनत न छोड़
इस ज़िंदगी में लम्हा-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ न रख

वो फ़स्ल पक चुकी थी अब उस का भी क्या क़ुसूर
तुझ से कहा था जेब में चिंगारियाँ न रख

वो जिस्म है तो उस को फ़क़त जिस्म ही समझ
पर्दा किसी फ़रेब का फिर दरमियाँ न रख

आएगी हर तरफ़ से हवा दस्तकें लिए
ऊँचा मकाँ बना के बहुत खिड़कियाँ न रख

वो जिस्म खुल रहा है गिरह-दर-गिरह 'नज़र'
ये तीर चूक जाएगा ढीली कमाँ न रख