EN اردو
निकलो हिसार-ए-ज़ात से तो कुछ सुझाई दे | शाही शायरी
niklo hisar-e-zat se to kuchh sujhai de

ग़ज़ल

निकलो हिसार-ए-ज़ात से तो कुछ सुझाई दे

रहमत क़रनी

;

निकलो हिसार-ए-ज़ात से तो कुछ सुझाई दे
गुम्बद में बाज़गश्त-ए-सदा ही सुनाई दे

हर इक उफ़ुक़ फ़रेब-ए-नज़र है कि आसमाँ
झुक कर गले ज़मीन के मिलता दिखाई दे

या तोड़ दे ब-पास-ए-अना कासा ख़ुद गदा
वर्ना दर-ए-बख़ील की या-रब गदाई दे

मशरिक़ में आदमी को अगर फाँस भी चुभे
मग़रिब का हर मकीन तड़प कर दुहाई दे

क़हर-ए-ख़ुदा ख़ुदाओं के हैं क़हर कू-ब-कू
आशोब-ए-शहर में न दुहाई सुनाई दे

'रहमत' चराग़-ए-ख़ाना-ए-दर्वेश है हयात
या-रब! कोई तो चाँद सा चेहरा दिखाई दे