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नींद इन आँखों में बन कर आए कोई | शाही शायरी
nind in aankhon mein ban kar aae koi

ग़ज़ल

नींद इन आँखों में बन कर आए कोई

साहिबा शहरयार

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नींद इन आँखों में बन कर आए कोई
लोरी माँ की मुझे सुना जाए कोई

दूर यहाँ से जा कर सब कुछ भूल गए
हम ज़िंदा हैं उन को बतलाए कोई

रोज़-ए-अज़ल से हम थे अकेले दुनिया में
कहाँ से और कैसे अब साथ आए कोई

सच को मैं सच मान लूँ अब ये बेहतर है
मुझ को क़ाइल कैसे कर पाए कोई

ऐसी कहानी कभी नहीं जो गुज़री हो
वही कहानी मुझे सुना जाए कोई

दर्द को सहना भी आदत में शामिल है
दर्द की कितनी हद है समझाए कोई

अब कुछ ही लम्हों का सफ़र ये बाक़ी है
'साहिबा' बोझ कहाँ तक सह पाए कोई