निहाल-ए-वस्ल नहीं संग-बार करने को
बस एक फूल है काफ़ी बहार करने को
कभी तो अपने फ़क़ीरों की दिल-कुशाई कर
कई ख़ज़ाने हैं तुझ पर निसार करने को
ये एक लम्हे की दूरी बहुत है मेरे लिए
तमाम उम्र तिरा इंतिज़ार करने को
कशिश करे है वो महताब दिल को ज़ोरों की
चला ये क़तरा भी क़ुल्ज़ुम निसार करने को
तो फिर ये दिल ही न ले आऊँ ख़ूब चमका कर
तिरे जमाल का आईना-दार करने को
क़बा-ए-मर्ग हो या रख़्त-ए-ज़िंदगी ऐ दोस्त
मिले हैं दोनों मुझे तार तार करने को
बहुत सा काम दिया है मुझे उन आँखों ने
हवाला-ए-दिल-ए-ना-कर्दा-कार करने को

ग़ज़ल
निहाल-ए-वस्ल नहीं संग-बार करने को
अहमद जावेद