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निगाह करने में लगता है क्या ज़माना कोई | शाही शायरी
nigah karne mein lagta hai kya zamana koi

ग़ज़ल

निगाह करने में लगता है क्या ज़माना कोई

साबिर ज़फ़र

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निगाह करने में लगता है क्या ज़माना कोई
पयम्बरी न सही दुख पयम्बराना कोई

इक-आध बार तो जाँ वारनी ही पड़ती है
मोहब्बतें हों तो बनता नहीं बहाना कोई

मैं तेरे दौर में ज़िंदा हूँ तू ये जानता है
हदफ़ तो मैं था मगर बन गया निशाना कोई

अब इस क़दर भी यहाँ ज़ुल्म को पनाह न दो
ये घर गिरा ही न दे दस्त-ए-ग़ाएबाना कोई

उजालता हूँ मैं नालैन-ए-पा-ए-लख़्त-ए-जिगर
कि मदरसे को चला इल्म का ख़ज़ाना कोई