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निगाह-ए-शौक़ अगर दिल की तर्जुमाँ हो जाए | शाही शायरी
nigah-e-shauq agar dil ki tarjuman ho jae

ग़ज़ल

निगाह-ए-शौक़ अगर दिल की तर्जुमाँ हो जाए

हया लखनवी

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निगाह-ए-शौक़ अगर दिल की तर्जुमाँ हो जाए
तो ज़र्रा ज़र्रा मोहब्बत का राज़-दाँ हो जाए

फिर इस के रंज-ओ-ग़म ओ दाग़ की हद है कोई
जो इस जहाँ में घड़ी भर को शादमाँ हो जाए

कसी से क्या गिला-ए-जौर-ए-आसमाँ कीजे
कि जिस ज़मीं पे रहें हम वो आसमाँ हो जाए

'हया' ठिकाना भी कुछ ऐसी दर्द-मंदी का
कि लब तक आए न इक हर्फ़ और फ़ुग़ाँ हो जाए