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निगाह-ए-अहल-ए-जहाँ में शिकस्ता-हाल हूँ मैं | शाही शायरी
nigah-e-ahl-e-jahan mein shikasta-haal hun main

ग़ज़ल

निगाह-ए-अहल-ए-जहाँ में शिकस्ता-हाल हूँ मैं

मोहम्मद सिद्दीक़ साइब टोंकी

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निगाह-ए-अहल-ए-जहाँ में शिकस्ता-हाल हूँ मैं
जवाब जिस का नहीं है वो इक सवाल हूँ मैं

बुलंद हूँ तो सर-ए-अर्श-ए-ज़ुल-जलाल हूँ मैं
जो पस्त हूँ तो फिर इक फ़र्श-ए-पाएमाल हूँ मैं

भुला सकेंगे अबद तक न अहल-ए-दर्द मुझे
जहान-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत में ला-ज़वाल हूँ मैं

मिरा मक़ाम हर इक दिल में है जुदागाना
अगर यक़ीन नहीं हूँ तो एहतिमाल हूँ मैं

उरूज-ओ-पस्त मिरा दर्स है जहाँ के लिए
बना हूँ बद्र कभी तो कभी हिलाल हूँ मैं

चमन में हाए वो इक बर्ग-ए-ज़र्द का कहना
बहार-ए-हाल में याद-ए-गुज़िश्ता-साल हूँ मैं

मजाल-ए-दीद है 'साइब' न ताब-ए-नुत्क़ मुझे
किसी के सामने तस्वीर की मिसाल हूँ मैं