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नज़र उठा के जो देखा उधर कोई भी न था | शाही शायरी
nazar uTha ke jo dekha udhar koi bhi na tha

ग़ज़ल

नज़र उठा के जो देखा उधर कोई भी न था

असअ'द बदायुनी

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नज़र उठा के जो देखा उधर कोई भी न था
सुलगती धूप की सरहद पे घर कोई भी न था

हर एक जिस्म था इक पोस्टर शुआ'ओं का
सुलगते दश्त में ठंडा शजर कोई भी न था

चमकते दिन में तो सब लोग साथ थे लेकिन
उदास शब में मिरा हम-सफ़र कोई भी न था

हर एक शहर में था इज़्तिराब का आसेब
जहाँ सुकून हो ऐसा नगर कोई भी न था

सभी को फ़न्न-ए-जराहत से वाक़फ़िय्यत थी
हमारी तरह वहाँ बे-हुनर कोई भी न था

सब अपने कमरों में मस्ती की नींद सोए थे
सियाह शब में सर रहगुज़र कोई भी न था

जो तल्ख़ शाम के सायों को क़त्ल कर देता
तमाम-शहर में इतना निडर कोई भी न था

मिरे ज़वाल की सब को थी आरज़ू 'असअद'
मिरे कमाल से ख़ुश-दिल मगर कोई भी न था