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नज़र तो आ कभी आँखों की रौशनी बन कर | शाही शायरी
nazar to aa kabhi aankhon ki raushni ban kar

ग़ज़ल

नज़र तो आ कभी आँखों की रौशनी बन कर

किश्वर नाहीद

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नज़र तो आ कभी आँखों की रौशनी बन कर
ज़मीन-ए-खुश्क को सैराब कर नमी बन कर

रचा हुआ है तिरी कम निगाहियों का करम
नशे की तरह मिरे दिल में सरख़ुशी बन कर

कभी तो आ सितम-ए-जाँ-गुसिल ही देने को
कभी गुज़र उन्ही राहों से अजनबी बन कर

ख़ुशा कि और मिला ग़म का ताज़ियाना हमें
ख़ुशा वो दर्द जो छाया है नग़्मगी बन कर

हुई न उन से वफ़ा तुम से क्या हुआ 'नाहीद'
अभी तलक जिए जाती हो बावली बन कर