EN اردو
नज़र में मंज़र-ए-रफ़्ता समा भी सकता है | शाही शायरी
nazar mein manzar-e-rafta sama bhi sakta hai

ग़ज़ल

नज़र में मंज़र-ए-रफ़्ता समा भी सकता है

हसन जमील

;

नज़र में मंज़र-ए-रफ़्ता समा भी सकता है
कोई भुलाया हुआ याद आ भी सकता है

मैं उस से रूठ गया हूँ मगर ये हक़ है उसे
मनाना चाहे तो मुझ को मना भी सकता है

मैं उस के रहम-ओ-करम पर हूँ एक मुद्दत से
जला भी सकता है मुझ को बुझा भी सकता है

ये इख़्तियार उसे दे दिया गया है कि वो
हिंसा भी सकता है मुझ को रुला भी सकता है

'हसन-जमील' बनाया था इस ने दिल से मुझे
किसी भी वक़्त मगर वो मिटा भी सकता है