नज़र की वुसअतों में कुल जहाँ था
ज़मीं से दूर कितना आसमाँ था
मिरी कश्ती भँवर में डूब जाती
हवा की मद पे लेकिन बादबाँ था
मैं उस की हर्फ़-गीरी कर ना पाया
वो मेरी ज़िंदगी का राज़दाँ था
तुझे पा कर तुझे खोया है हम ने
यही तो ज़िंदगी का इम्तिहाँ था
वही गुम हो गया रस्ते में शायद
जो रहबर था जो मीर-ए-कारवाँ था
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ग़ज़ल
नज़र की वुसअतों में कुल जहाँ था
अब्दुल मन्नान समदी