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नज़र बहार न देखे तो बे-क़रार न हो | शाही शायरी
nazar bahaar na dekhe to be-qarar na ho

ग़ज़ल

नज़र बहार न देखे तो बे-क़रार न हो

शिव दयाल सहाब

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नज़र बहार न देखे तो बे-क़रार न हो
ख़िज़ाँ सुकून से गुज़रे अगर बहार न हो

निगाह-ए-दिल में जो रंगीनी-ए-बहार न हो
गुनाहगार-ए-तमाशा गुनाहगार न हो

फ़रेब-ए-निकहत-ओ-रंग आगही शिकार न हो
करिश्मा-कार-ए-चमन में अगर बहार न हो

ख़िज़ाँ के जौर-ए-मुसलसल पे बे-क़रार न हो
बहार देख मगर ख़ूगर-ए-बहार न हो

बजा है ग़ुंचे का जोश-ए-नुमू से खिल उठना
जो गुल पे आई वो गुज़री हुई बहार न हो

मिरा शुऊ'र-ए-बहाराँ ख़िज़ाँ पे ग़श हो 'सहाब'
अगर वो नक़्स-ए-बहाराँ की यादगार न हो